ये कहां आ गए हम
सूक्ति यूं तो संदर्भित है मगर सत्य है युवक और युवतियां जिस आधुनिक मार्ग की ओर बढ़ रही है उससे यह तो कहने में कोई दोहराय नहीं कि वो मार्ग भारतीय संस्कृति के पतन का ही अनुसरण है ।
संस्कृत की सूक्ति है- " प्राप्तेतु षोडशे वर्षे गर्दभी अप्सरा भवेत्।" अर्थात सोलहवें साल में तो गधी भी अप्सरा हो जाती है। मेरे अप्सरावादी मित्र मुझे इस सूक्ति का अर्थ इस प्रकार समझाते हैं- "सोलह साल की हो जाने पर तो सामान्य सूरत कन्या भी अप्सरा के समान ही लावण्यमयी दिखाई देने लगती है।" इसीलिए मुझे भी मानना पड़ता है कि यौवन आ जाने पर तो सौन्दर्य स्वत: ही प्रखर हो जाता है।
कुछ अप्सराएं सोलह साल की हो जाने के बाद गधी के समान ही नासमझ भी हो जाती हैं और जीवन भर सोलह साल की बनी भी रहना चाहती हैं।
मिश्र की महारानी "क्लियोपैट्रा" जीवन भर सोलह साल की बनी रहने के लिए गधी के दूध से स्नान किया करती थी। हमारी चलचित्र बालाएं तन्वी बनी रहने के लिए चरस भर कर सिगरेट के सुट्टे लगाती हैं जिससे उनके जिगर में इतनी आग हो जाती है कि वह न केवल अपने पिया से कह सकती हैं कि -" बीड़ी जलइले जिगर से पिया जिगर में बड़ी आग है।" वरन किसी गधे के जीवन में भी आग लगा सकती हैं।
गंदर्भ विवाह और गर्दर्भ प्रणय की पराक्रमी और महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं पर शोध करने का कार्य अप्सरावादियों पर छोड़ कर, मैं अप्सरा शब्द के पुल्लिंग शब्द की खोज करने निकलता हूं।
गंदर्भ शब्द शाब्दिक रुप से तो अप्सरा शब्द का पुल्लिंग शब्द नहीं है किंतु गर्दर्भ शब्द का तुकांत शब्द अवश्य ही है।
मुगल बादशाह जीवन भर गर्दर्भ बने रहने के लिए कुश्ता खाया करते थे। कुश्ता अफीम से तैयार किया जाता था। कुश्ता का स्त्रीलिंग कुश्ती होता है। कुश्ता अप्सराओं से कुश्ती लड़ने के काम आता था।
मुगल बादशाह हुमायूं इतना बड़ा पुस्तक प्रेमी था कि वह पुस्तकालय जाने से पहले कुश्ता खाया करता था। एक बार अधिक कुश्ता खा लेने के कारण वह पुस्तकालय की सीढ़ियां चढ़ते समय लड़खड़ा कर गिरा और उसकी मृत्यु हो गई।
बादशाह 'शाहजहां' इतना बड़ा कुश्ती प्रेमी था कि उसकी वेगम 'मुमताज़' की मृत्यु, मुमताज़ के चौदहवें शिशु के जन्म के कारण ही हुई थी। मुमताज़ की मृत्यु के बाद शाहजहां मुमताज़ की बेटी 'जहांआरा' में मुमताज़ की खोज किया करता था।
अंग्रेज दार्शनिक 'मैक्समुलर' की भारतीय संस्कृति के उत्थान की चिंता और 'मैकाले' की शिक्षा पद्धति भारतीय युवाओं को इतना संस्कारवान नहीं बना सकी है जितना संस्कारवान हमारे फिल्म वाले बना रहे हैं। फिल्म वालों ने 'चाणक्य' की "अहारे व्यवहारे त्यक्त लज्जा सुखी भवेत्"
उक्ति में "व्यवहारे" शब्द को "विहारे" शब्द के रूप में ग्रहण कर लिया है उनको लज्जा त्याग कर विहार का प्रदर्शन करने में सुख प्राप्त होता है।
"चिकनी चमेली छुप कर अकेली पउवा चढ़ा के आई।"
इस फिल्मी गीत में मुझे उच्च संस्कारों की झलक दिखाई देती है क्योंकि यदि चिकनी चमेलियां छुप कर अकेले में पउवा चढ़ाती रहें और चढ़वाती रहें, तो इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता किंतु एक की टी०वी० विज्ञापन में एक चमेली भरी महफ़िल में गिलास खाली कर, एक युवक की टाई पकड़ कर झटकती है और पूछती है- "मेय यू मैरी मी।"
मैं यह नहीं समझ पाया हूं कि यह शुभ विवाह का प्रस्ताव है अथवा "ईट ड्रंक एण्ड बी मैरी" अवधारणा के अनुसार ड्रिंक कर लेने के बाद अप्सरा में किसी भी गधे की बीड़ी सुलगा देने का साहस है।
अभिनेत्री "स्वरा भास्कर" ने अनेक गधों के प्रयोग कर सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया है कि किस प्रकार के गधों का यौवन कितना उत्कट होता है। यह ज्ञान उसने ट्यूटर पर ट्वीट कर सार्वजनिक किया है। संभवतः तुलसी दास जी ने इसीलिए लिखा होगा- "महा भाग मानुष तनु पावा। सुर नर मुनि ग्रंथनु जस गावा।।"
अप्सराएं जब शरीर से अद्वैत स्थापित रखने वाली पारभाषक जीन्स पहनकर, "बावन गज का लंहगा पहन मटक के चलूंगी ।" डी० जे० गीत पर उछल रही होती हैं तो मुझे शालीन पहनावे का भविष्य उज्जवल दिखाई देने लगता है।
मैं बचपन में लहंगे को गंवारू पहनावा मानता था क्योंकि जिस समय मेरा सामाजिक ज्ञान आरंभ हुआ था उस समय तक लंहगा पहनने का फैशन जा चुका था। लहंगा पहनने वाली को पिछड़ी सोच का माना जाता था।
जब "धर्म कांटा" फिल्म आई तब मेरा सोलहवां साल आए हुए चार वर्ष बीत चुके थे अतः मुझे आसानी से समझ आ गया था कि यदि "गोटेदार लहंगा" हो तो पहनने वाली की "मतवाली चाल पर" छुरियां भी चल सकती हैं। बस उसी समय से मेरा लंहगा के प्रति आदर भाव बढ़ता ही चला गया।
बचपन में दादी और नानी से लहंगा पहनने के स्वर्ण काल के बारे में सुना था। लहंगा बनाने के लिए सोलह गज कपड़े की आवश्यकता होती थी। सोलह गज कपड़े में दुपट्टा, कमीज़ और लहंगा तीन वस्त्र बनाए जाते थे जिनको "षोडशी" बड़े गर्व से धारण किया करती थी।
जिस समय अप्सराओं में जेब में रख कर लाए जा सकने योग्य कपड़े पहन कर दर्शन देने की होड़ मची हो और उसको अश्लीलता कहना देखने वाले के नजरिए का दोष बताया जाता हो, ठीक उसी समय आधुनिकाओं द्वारा "बावन गज का लंहगा" पहनने की घोषणा करना आशा की किरण जगाता है क्योंकि सौन्दर्य की तीक्ष्णता अनावरण से अधिक आवरण में प्रबल होती है।
और हां ! उन वीरांगनाओं के जिगर में बीड़ी जलाने वाली आग नहीं हुआ करती थी। मान और मर्यादा की रक्षा करने के लिए उनकी आंखों से अंगारे बरसते थे। नारी गरिमा की रक्षा करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर, वे उन्हीं अंगारों में कूद कर स्वहा भी हो जाया करती थीं ।
वाह वाह वाह तीखा व्यंग्य बहुत खूब
ReplyDeleteधन्यवाद कविश्रैष्ठ
Deleteबहुत खूब भाई दशरत
ReplyDeleteधन्यवाद भाई साहब
Deleteबहुत अच्छी तरह से समझाया आपने फिल्मी दुनियक को
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteपरिष्कृत भाषा में लिखा गया तीक्ष्ण कटाक्ष।गंधर्व और गदर्भ वाली बात बहुत प्रभावी थी।
ReplyDeleteकुछ पंक्तियों पर परसाई जी की याद आ गई।