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“रामायण” क्या है ?

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रामायण का एक छोटा सा वृतांत है, एक रात की बात हैं,  माता कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी।  नींद खुल गई, पूछा कौन हैं ? मालूम पड़ा श्रुतकीर्ति जी (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्न जी की पत्नी)हैं । माता कौशल्या जी ने उन्हें नीचे बुलाया | श्रुतकीर्ति जी आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बेटी ?  क्या नींद नहीं आ रही ? शत्रुघ्न कहाँ है ? श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी,  गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए । उफ !  कौशल्या जी का ह्रदय काँप कर झटपटा गया । तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए ।  आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी,  माँ चली । आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ? अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले !!  माँ सिराहने बैठ गईं,  बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं,  माँ ! उठे,

तुलसी मस्तक तब नवै जब धनुष बाण हो हाथ

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   भगवान भक्तो को और भक्त भगवान को कब असमंजस की स्थिति में डॉल दे कुछ पता नहीं ऐसी ही एक कथा आपके सामने प्रस्तुत हे:- भक्त गोस्वामी तुलसीदास जी एक बार एक मंदिर के बाहर से जा रहे थे तभी पुजारीजी ने  व्यंग्य से कहा गोस्वामी जी भगवान से बड़ा कोई काम आ गया क्या दर्शन तक का समय नही बाहर ही बाहर से जा रहे हैं।  तुलसीदास जी ने कहा गलती हो गयी और जय श्री राम का जयकारा लगाकर बाहर ही प्रणाम करके चलने लगे।  पुजारी जी फिर बोल उठे "तनिक दर्शन तो कर लो"। तुलसीदास जी ने पादुकाये खोली पैर धोये और गर्भग्रह में आये। कभी भगवान को वस्त्र पहनाये जा रहे थे पुजारीजी बोले प्रणाम कर लीजिए।  "अभी नहीं " तुलसीदास जी बोले।  पुजारी ने वस्त्र पहनाये फिर बोले "अब कर लीजिए"।  तुलसीदास जी फिर बोले "अभी नहीं "। तिलक छाप किये गये भोग नैवेद्य चढाये फिर भी तुलसीदास जी नही झुके।  पुजारी जी से न रहा गये वे बोले क्या हुआ आप बड़े विचित्र मनुष्य है भगवान सामने है फिर भी सर नहीं झुका रहे है ये कैसी भक्ति।  तुलसीदास जी ने बडा ही सुन्दर उत्तर दिया।    कहां कहो छवि आजु  कि भले बिराजऊ नाथ, तु

टूटा लोहे का राम धनुष

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   बात 1880 के अक्टूबर नवम्बर की है बनारस की एक रामलीला मण्डली रामलीला खेलने तुलसी गांव आयी हुई थी... मण्डली में 22-24 कलाकार थे जो गांव के ही एक आदमी के यहाँ रुके थे वहीं सभी कलाकार रिहर्सल करते और खाना बनाते खाते थे...पण्डित कृपाराम दूबे उस रामलीला मण्डली के निर्देशक थे और हारमोनियम पर बैठ के मंच संचालन करते थे और फौजदार शर्मा साज-सज्जा और राम लीला से जुड़ी अन्य व्यवस्था देखते थे...एक दिन पूरी मण्डली बैठी थी और रिहर्सल चल रहा था तभी पण्डित कृपाराम दूबे ने फौजदार से कहा इस बार वो शिव धनुष हल्की और नरम लकड़ी की बनवाएं ताकि राम का पात्र निभा रहे 17 साल के युवक को परेशानी न हो पिछली बार धनुष तोड़ने में समय लग गया था...  इस बात पर फौजदार कुपित हो गया क्योंकि लीला की साज सज्जा और अन्य व्यवस्था वही देखता था और पिछला धनुष भी वही बनवाया था... इस बात को लेकर पण्डित जी और फौजदार में से कहा सुनी हो गया..फौजदार पण्डित जी से काफी नाराज था और पंडित जी से बदला लेने को सोच लिया था ...संयोग से अगले दिन सीता स्वयंवर और शिव धनुष भंग का मंचन होना था...फौजदार मण्डली जिसके घर रुकी थी उनके घर गया और कहा रामलील